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         बरखा मलती मरहम

 
 
धूप-दंश सहती शाखों पर
बरखा मरहम मलती है
मंत्र फूँकने हरियाली का
झर-झर मेहा
झरती है

धूल बुहार रही गलियों की
तेज़ हवाएँ बंजारिन
उड़े महक सोंधी-सोंधी जब
बरसें बूँदें पनिहारिन
वन-उपवन लहलहा उठे यूँ
नभ से प्रीत
बरसती है

उमड़ घुमड़ घनघोर घटाएँ
लायीं न्यौता सावन का
बाँट रहा अम्बर सौगातें
फूटा अंकुर जीवन का
ओढ़ चुनरिया धानी, धरती
पुलकित मन ले
फिरती है

अंतस ले यादों की बदरी
रुत सावन की आयी है
मेहँदी, चूड़ी, झूला, मेला
बिटिया खुशियाँ लायी है
झूम रही है सँग बरखा के
त्योहारों की
मस्ती है

- आभा खरे
१ अगस्त २०२५

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