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घिरी घटा घनघोर
(मरहटा माधवी छंद)

 
 

घिरी घटा घनघोर, शोर चहुँ ओर, कड़कती दामिनी।
नभ को रही निहार, केश फटकार, आ गई यामिनी ।।
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खिले खिले उद्यान, लगे वरदान, मुदित होती धरा ।
बूँदों का है प्यार, बरसती धार, करे जग को हरा ।।
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लाज शर्म सब छोड़, लगा कर होड़, मेघ जिद पर अड़े ।
तिरछी सी मुस्कान, दिखाने शान, सामने आ खड़े ।।
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अपनी लटें सँवार, घटा सी नार, गगन को चूमती ।
ठंडी सी बौछार, मान मनुहार, नाचती झूमती ।।
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भरे तलैया ताल, टूटते पाल, लोग बेहाल हैं ।
यों बरसा आषाढ़, आ गई बाढ़, बढ़े जंजाल हैं ।।
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भीगे-भीगे गात, ओढ़कर पात, गीत गाने लगे ।
इंद्रधनुष के रंग, घटा के संग, गज़ब ढाने लगे ।।
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बुझी धरा की प्यास, हास परिहास, मेघ करने लगे।
जलतरंग की धार, पावसी हार, प्रीत भरने लगे ।।

रमा प्रवीर वर्मा
१ अगस्त २०२५

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