 |
घिरी घटा घनघोर
(मरहटा माधवी छंद) |
|
घिरी घटा घनघोर, शोर चहुँ ओर,
कड़कती दामिनी।
नभ को रही निहार, केश फटकार, आ गई यामिनी ।।
..
खिले खिले उद्यान, लगे वरदान, मुदित होती धरा ।
बूँदों का है प्यार, बरसती धार, करे जग को हरा ।।
..
लाज शर्म सब छोड़, लगा कर होड़, मेघ जिद पर अड़े ।
तिरछी सी मुस्कान, दिखाने शान, सामने आ खड़े ।।
..
अपनी लटें सँवार, घटा सी नार, गगन को चूमती ।
ठंडी सी बौछार, मान मनुहार, नाचती झूमती ।।
..
भरे तलैया ताल, टूटते पाल, लोग बेहाल हैं ।
यों बरसा आषाढ़, आ गई बाढ़, बढ़े जंजाल हैं ।।
..
भीगे-भीगे गात, ओढ़कर पात, गीत गाने लगे ।
इंद्रधनुष के रंग, घटा के संग, गज़ब ढाने लगे ।।
..
बुझी धरा की प्यास, हास परिहास, मेघ करने लगे।
जलतरंग की धार, पावसी हार, प्रीत भरने लगे ।।
रमा प्रवीर वर्मा
१ अगस्त २०२५ |
|
|
|
|