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पात पात हरिया गया
(दोहे) |
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उमड़-घुमड़ बदली चली, बिजली करती
घात।
अटक-मटक उफनी नदी, मचा रही उत्पात।।
पात-पात हरिया गया, अँखुआया हर बीज।
भँवरे झूलें झूलना, तितली करती तीज।।
आँखों में भादों चढ़ा, मन में रेगिस्तान।
प्रीति भरी बदली बिना, जीवन एक मसान।।
यादों की बारिश हुई, उगे गुलाबी स्वप्न।
छप-छपाक बेफ़िक़्रियाँ, बस केवल है जश्न।।
छप्पर कैसे ले भला, वर्षा का आनन्द।
काले बादल देखकर, हुए हौसले मन्द।।
पेंगे पीछे रह गयीं, टूट गयी हर डोर।
ज़िम्मेदारी लीलकर, बैठी स्वर्णिम भोर।।
प्यासे खेतों ने किया, जैसे अमरितपान।
लहक उठे जल बीच में, सौंधे-सौंधे धान।।
सकल सृष्टि में हर्ष का, करती है संचार।
वर्षा ऋतु मन-भावनी, करती लाड़-दुलार।।
- डॉ.भावना तिवारी
१ अगस्त २०२५ |
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