अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर


         चलें घूमने

 
 
वर्षा की ऋतु लगे सुहानी, चलें घूमने
करने बचपन-सी मनमानी, चलें घूमने

आज सुबह से वर्षा रानी, रहीं बरसती
दिखती धरा चतुर्दिश धानी, चलें घूमने

पुष्प, लतायें, पात प्रफुल्लित, भरे सरोवर
मेघों ने है चादर तानी, चलें घूमने

नन्हे बच्चे भरें कुलाँचें, गलियों-गलियों
हरित छटा, खेतों का पानी, चले घूमने

कहीं दिखें नौकाएँ चलती, कहीं सपेरे
लिपे-पुते घर, छप्पर-छानी, चलें घूमने

कहीं ओज आल्हा का दिखता, कहीं कीर्तन
किसलय धरा हुई दीवानी, चलें घूमने

- आचार्य विजय तिवारी 'किसलय'
१ अगस्त २०२५

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter