माना, अमावस की अंधेरी रात है,
पर, भीत होने की अरे क्या बात है?
एक पल में लो अभी —
जगमग नए आलोक के दीपक जलाता हूँ!
माना अशोभन, प्रिय धरा का वेष है
मन में पराजय की व्यथा ही शेष है,
पर, निमिष में लो अभी —
अभिनव कला से फिर नई दुलहिन सजाता हूँ!
कह दो अंधेरे से प्रभा का राज है,
हर दीप के सिर पर सुशोभित ताज है,
कुछ क्षणों में लो अभी —
अभिषेक आयोजन दिशाओं में रचाता हूँ!