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								मावस की आँखें चुँधियाईं  
								साजन साँझ ढले  
								गाँव, गली, द्वारे, चौबारे  
								जग-मग दीप जले। 
								 
								रजनी के आँचल में टाँके 
								नखत नयन-कोरे - 
								दीपक के दिल पर किरनों के 
								डाल रहे डोरे। 
								 
								अपनी ओट छिपा अँधियारा 
								रह-रह हाथ मले। 
								 
								तेल तरल हो गया 
								ताप लेकर जीवन का। 
								दर्द, नेह बन गया 
								दिये के तन का-मन का। 
								 
								खुशियों में डूबी बाती की 
								गीली देह जले। 
								 
								कमलासिनि साक्षात  
								रंक के आँगन में उतरीं! 
								सपने जड़ित स्वर्ण-मुद्रायें 
								यत्र-तत्र बिखरीं। 
								उठो सहेजो नयी भोर के 
								मोती भले-भले । 
								 
								- उमा प्रसाद लोधी 
								१ नवंबर २०१५  |