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								दीपक दीप्त हुआ मदमाता 
								कुचल अँधेरा अपने तल से 
								 
								घी की गमक हवा में फैली 
								पावन शंखनाद गुंजित है 
								घर-घर का शुभ-लाभ बढ़ेगा 
								आस यही दिशि-दिशि मुखरित है 
								प्रेम न किसको हो जाएगा 
								ऐसे आत्म-लुभावन पल से 
								 
								जगा बालपन यौवन में भी 
								चरखी, रस्सी, साँप, फुलझड़ी 
								उष्ण हुई अनुभूति परस्पर 
								श्रृंगारों की लगी है लड़ी 
								ध्यान रहे बस तीव्र धमाके 
								दुखित न कर दें छल या बल से 
								 
								लगे पुनः वनवास काटकर 
								धर्म लौट घर वापस आया 
								सीता-राम झलकते रह-रह 
								अवधपुरी सा दृश्य सुहाया 
								हुई लालसा अपना जीवन 
								यों ही रह जाए अब कल से 
								 
								- कुमार गौरव अजीतेन्दु 
								१ नवंबर २०१५  |