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								और... 
								यह जो पर्व का मौसम  
								इसे, आओ, जगाएँ 
								 
								रामजी कल अवध लौटे  
								उन्हें परजा मिली अंधी 
								महल के पिछले सिरे पर  
								राजलक्ष्मी मिली बंदी  
								 
								काम आईं नहीं उनके  
								किसी भी ऋषि की दुआएँ  
								 
								एक प्रतिमा यक्ष की है  
								उसे ही सब पूजते हैं  
								सोनहिरना ही घरों में  
								इन दिनों सब पालते हैं  
								 
								ढोल रक्खा है असुरकुल का  
								चलो, हम भी बजाएँ  
								 
								मंत्रिजन हैं कुटिल-छद्मी  
								हैं मुखौटे भरत धारे  
								गुणीजन लाये नये जो  
								दीप वे ही गये पारे  
								 
								कभी दादी ने कहीं थीं  
								हुईं झूठी वे कथाएँ  
								 
								- कुमार रवीन्द्र 
								१ नवंबर २०१५  |