| 
                                
                          
  
                                             
											 
											 
											   | 
                                                  
                                 
								दीपक को देखो यह कैसे तम हरता है  
								भाव निराशा का मन से क्षण में मिटता है  
								 
								मर्म समझ लेते हैं जब हम दीपोत्सव का  
								तब संचार नव आशा का, होकर रहता है  
								 
								परहित जीने को मानें सच्ची मानवता  
								सेवा से ही जीवन को संबल मिलता है  
								 
								छोड़ें मिथ्या आचरणों को जीवन में हम  
								सच्चाई का मार्ग हमेशा ही फलता है  
								 
								देखो धूल धुँए के बादल नभ पर छाये  
								पर्वों का यह रूप बहुत मन को खलता है  
								 
								हट जाता है मन मंदिर में पसरा तम भी  
								ज्ञान किरण प्रगटाता सूरज जब उगता है 
								 
								आडंबर की भेंट चढ़े हैं पर्व हमारे  
								कारण इसके पीछे अंजानी जड़ता है 
								 
								आपस में मिल हर त्यौहार मनाना सीखें  
								समरसता का सागर धरती पर बहता है  
								 
								- सुरेन्द्रपाल वैद्य  
								१ नवंबर २०१५  |