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ओ, लहकती बहकती
बसन्ती हवाओ!
छुओ मत मुझे,
इस तरह मत छुओ!
अनुराग भर-भर
गुँजा फागुनी स्वर
न ठहरो
न गुज़रो इधर से
बसन्ती हवाओं!
भटकती बहकती बसन्ती हवाओं!
मुझे ना डुबाओ
उफनते उमड़ते भरे पूर रस के
कुओं में, सरों में,
मधुर रास-रज के कुओं में, सरों में,
छुओ मत मुझे
इस तरह मत छुओ।
ओ, बसन्ती हवाओ!
दहकती चहकती बसन्ती हवाओ!
अभिशप्त, यह क्षेत्र वर्जित सदा से,
न आओ इधर!
यह विवश,
एक सुनसान वीरान मन को
समर्पित सदा से,
न आओ इधर
ओ, बसन्ती हवाओ!
गमकती खनकती बसन्ती हवाओ!
छुओ मत मुझे
इस तरह मत छुओ!
तप्त प्यासे कुओं में, सरों में
नहीं यों भिगोओ मुझे!
इन अवश अंग / युग-युग पिपासित
कुओं में, सरों में
नहीं यों भिगोओ मुझे!
ओ, बसन्ती हवाओ!
मचलती छलकती बसन्ती हवाओ!
छुओ मत मुझे
इस तरह मत छुओ!
यह
अननुभूत ओझल अस्पर्शित सदा से!
न आओ इधर
यह
उपेक्षित अदेखा अचीन्हा सदा से!
--महेन्द्र भटनागर |