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            खुली पाठशाला

 

नदी ने जल से कहा बहते रहो
रुके तो हो जाओगे मैले
सूख कर मर जाओगे

चाँद तारे धरा और नक्षत्र
जीवित हैं निरंतर चल रहे हैं
हरी भरी दूब सहला रही है
बढ़ते हुए युवा चरणों को

धरती माँ से सीख लो सूखे बीज
को अंकुरित करने की कला
सीख लो कैसे हारे थके जीवन
को नवांकुरित करना है तुम्हें

गुलाबी गंध फैलाने के लिए
पवन जाने कहाँ से आ गई
लगन और विश्वास को
मिल ही जाता है दैवी सहारा
प्यास धरती की बुझाने को
आगए आकाश में बादल
खुले आकाश के नीचे

इस पाठशाला में कोई
प्रत्यक्ष चित्रों से समझा रहा
रचना की उलझी हुई गुत्थी
टीचर एक विद्यार्थी अनेकानेक।

- शिव नारायण जौहरी
१ सितंबर २०२४

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