अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

       मन पतंग-सा

 
नील गगन में चढ़ती जातीं
पंख तितलियों से फहरातीं
उड़ती हैं उन्मत्त, पतंगें
कितनी हैं जीवंत!

चित्रकार की भरी तूलिका
जैसी फिरतीं नभ मंडल में
रंग- बिरंगी छवि उकेरतीं
दिशा- दिशा, अंचल- अंचल में
होकर ज्यों आसक्त, रंगा है
देखो पूर्ण दिगंत!

उँगली से है डोर बँधी पर
संचालित यह धड़कन से
उठना- गिरना, झुकना- मुड़ना
होता सब साधक- मन से
रोम- रोम अनुरक्त
बरसता
उर में मृदुल बसंत!

मात्र नहीं कागज का टुकड़ा
कर में युग की संस्कृति बाँधे
सिर्फ नहीं यह कच्ची डोरी
संस्कार सदियों की साधे
अपने संग समस्त-
उड़ानें
इसकी रहीं अनंत!

- प्रताप नारायण सिंह

१ जनवरी २०२३

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter