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     .बनकर प्रेम पतंग

 
चलो छुएँ हम छोर क्षितिज के
बनकर प्रेम पतंग
विश्वासों की डोर थाम कर
इक-दूजे के संग

उतर रही है भोर बसंती
धरती की चौखट पर
शोख हवाएँ टहल रहीं हैं
ताल- नदी के तट पर
पैर डुबो कर किरने करती
पानी से अठखेली
केश सुनहले लगी सुखाने
धूप तीर के वट पर
चोंच मार कर उड़ा पखेरू
जल में उठी तरंग

मन की सोई इच्छाओं के
पंख चलो फैलाएँ
संग पंछियों की पाँतों के
अम्बर में उड़ जाए
छोड़ सभी जग की चिंताए
छन्द रचे मौसम के
अपने मन की कस्तूरी में
हम खुद ही खो जाए
चूमे शीश मौन शिखरों के
लेकर नयी उमंग

टूट न जाए डोर प्यार की
आपस में टकराकर
साथ- साथ उड़ना, पर रखना
दूरी तनिक बनाकर
रिश्तों में भी दूर- पास का
है संतुलन जरूरी
वर्ना देखे कई बिछुड़ते
हाथ, हाथ में आकर
मुरझ न जाएँ कहीं विहँसते
खुशियों के ये रंग

- मधु शुक्ला
१ जनवरी २०२३

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