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नव
वर्ष अभिनंदन |
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नव-प्रभाती |
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नव-प्रभाती गुनगुनाकर जो किरण उतरी धरा पर,
मैं उसी के नाम लिखने जा रही हूं नव सृजन को।
भोर से ही दे रहा आहट
नया उत्कर्ष कोई।
या कि फिर आया जगाने
नित्य नूतन पर्व कोई।
हर ऋचा की मांगलिकता इन दिशाओं से उतर कर,
दे रही हैं सूचनाएँ भारती को, हर भुवन को।
सूर्य फिर करने लगा है
इस धरा पर दस्तकारी।
और केसर की किरण
करने लगी है चित्रकारी।
शस्य- श्यामल प्रकृति के फिर गीत गाने लग गई है,
हवा दुलराने लगी अठखेलियाँ करते सपन की।
आज हम हर कंकरी को
फूल का आकार दे दें।
हर कली को भ्रमर-दल
जैसा,मधुर गुंजार दे दें।
आज जन-जन को समर्पित हैं सकल शुभ- कामनाएँ,
और वह जो शेष है,अर्पित मनुजता की लगन को।
भीतरी कलमष हटाकर
रोशनी के शब्द जोडें।
जो घटा अपने विगत में
भूल जाएं और छोड़ें।
आज हम जो रच रहे हैं, वह बने इतिहास कल का,
बाँसुरी बन दे सुनाई लेखनी अपने गगन की।
निर्मला जोशी |
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फिर भी
आएगा नया साल साल की
पहली तारीख को छपने वाली पत्रिकाओं में
भरी है उबासी और थकान
साल के अंतिम दिन-सी।
डर भरे हैं जेबों में,
किशमिश
और चिलगोज़ों की जगह
कोई फौज लड़ती नहीं
अकेलेपन और
अपसंस्कृति के विरुद्ध
बारिशों में बरसती नहीं
शुभकामनाओं की मछलियाँ।
थोड़ी सी भी
खुशियाँ जमा नहीं हुई बैंक में
कि मनाया जा सके
नए साल का उत्सव।
सब सोये हैं
अपनी अपनी बेबसी से बुने
थुल्मे ओढ़े
बिछे हैं आडंबरों के कालीन
ज़मीन की सच्चाई पर
अब पाँव रखे नहीं जाते।
कोई लिखता नही खुशी के गीत
नया साल फिर भी आएगा
चुपचाप
आँखें झुकाए, बदन सिकोड़े
निकल जाएगा बिना बात किए
जिसकी अगवानी को तुमने
नहीं उबाला दूध
वो बाहें खोल
तुम्हें आशीष कैसे देगा?
--पूर्णिमा वर्मन |