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कई नववर्ष आये, कई बसंत बीते,
बीता शिशिर, बीते कई सावन रीते।
पर जो जहाँ था, वहीँ का वहीँ रहा,
बस दौर बदलता रहा, वक़्त चलता रहा।
वो पहले भी भूखा था, अब भी वो भूखा है,
आसमान तले, नंगे बदन, खाता रुखा सूखा है।
वो मजदूर है, वो किसान है, वो कलाकार है, वो बेकार है।
वो कल भी था, आज भी है और कल भी रहेगा,
वो निर्धन है, अशिष्ट है, अतः अछूत रहेगा,
इसी तरह दौर बदलता रहेगा, वक़्त चलता रहेगा।
ढलती है शाम, मैखाने उनसे हो जाते आबाद,
कहलाये अमीर, कहलाये बड़े, कहलाये ऊँचे और नवाब।
वो शिष्ट है क्योंकि धनदार है, पर आदत से लाचार है,
निर्धन, गरीब को ठुकराना, उनका ये अधिकार है।
जश्न और त्यौहार सब उनका है,
जीने का अधिकार भी उनका है, उनका ही रहेगा,
इसी तरह दौर बदलता रहेगा, वक़्त चलता रहेगा।
मनीष जैन
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