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सागर के किनारे पर जब कोई लहर,
तट से टकराकर ध्वस्त हो जाती है,
अवश्य ही पीछे से करती हुई हर-हर,
कोई दूजी उत्ताल तरंग चली आती है।
प्रकृति के उसी अबाध क्रम में चलते हुए,
जब वर्ष दो हज़ार छः का अंत आएगा,
तब भविष्य के गर्भ से उन्मुक्त होकर,
वर्ष दो हज़ार सात वर्तमान बन जाएगा।
हो ऐसा कि उसके साथ उगे नया सूरज,
जिसके प्रकाश से सारा जग जगमगाए,
चहुँ ओर प्रस्फुटित हो जाएं हर्ष की लहरें,
जन-जन का तन मन प्रफुल्लित हो जाए।
क्षणिक जीवन का मर्म मानव समझ जाए,
हर मानव का धर्म मानवता ही बन जाए,
हम सब मिलकर करें परस्पर प्रेम की बात,
नववर्ष में हम जग को दें प्यार की सौग़ात।
-महेश चंद्र द्विवेदी
1 जनवरी 2007
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