फिर नया वर्ष आकर खड़ा द्वार पर
फिर अपेक्षित है शुभकामना मैं करूँ
माँग कर ईश से रंग आशीष के
आपके पंथ की अल्पना मैं भरूँ
फिर दिवास्वप्न के फूल गुलदान में
भर रखूँ आपकी भोर की मेज पर
न हो बाती नहीं हो भले तेल भी
कक्ष में दीप पर आपके मैं धरूँ
फिर ये आशा करूँ जो है विधि का लिखा
एक शुभकामना से बदलने लगे
खंडहरों-सी पड़ी जो हुई ज़िंदगी
ताजमहली इमारत में ढलने लगे
तार से वस्त्र के जो बिखरते हुए
तागे हैं एक क्रम में बँधे वे सभी
झाड़ियों में करीलों की अटका दिवस
मोरपंखी बने और महकने लगे
गर ये संभव है तो मैं हर इक कामना
जो किताबों में मिलती पूर्ण कर रहा
कल्पना के क्षितिज पर उमड़ती हुई
रोशनी में नया रंग हूँ भर रहा
आपको ज़िंदगी का अभीप्सित मिले
आपने जिसका देखा कभी स्वप्न हो
आपकी राह उन मोतियों से सजे
भोर की दूब पर जो गगन धर रहा।
राकेश खंडेलवाल
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