बताती फिरती थी मैं सबको
बड़े फख्र से
हाँ मेरा घर है
वहाँ बारामूला में।
जाना तुम
मेरी माँ के हाथ के सिके पराठे खाना
कडम का साग
दूधिया दाल
कचनार का सालन
बड़े प्यार से खिलाएगा माँ।
और देना उसे मेरा संदेस
कि
परदेस में सुख से हूँ
सिर्फ़ याद आती है तुम्हारी।और लेकर आना
मेरे लिए
मेरी माँ की मीठी याद-
जिसमें घुली है-
केसर की क्यारियों की पीली गंध,
चाँदी से दमकते झरनों के झकझके श्वेत बुलबुले,
अखरोट और चीड़ों की लाख की चूड़ियों जैसी खनखनाहट,
मैदानों की दूब पर से हरियाली मुस्कुराहट,
सूरज की छुवन से झील के कमलों के खुलने की भीगी आहट,
पलाश की पंखुरियों की रेशमी गुनगुनाहट
औ' माँ के प्यार से गदगदाती, इठलाती
मेरी पुरानी सखी सी पहचानी-
खुशनुमा बयार, चहकती-महकती हवा।
पर यह क्या संदेस लाए हो तुम!
कि हवा में बसी है नरकीली सड़ांध
कि मीठे पानी के नहीं
हिंसा और क्रूरता के चश्मे फूटते है वहाँ?
कि केसर की क्यारियों में
उगते हैं मांस, मज्जा और रक्तसनी लाशें,
कि झील में खिल आए हैं बारूद के फूल
कि अखरोट और चीड़ों से निकलते हैं काले दावानल
और लहूलुहान पड़ी है माँ
अपने ही पूतों के दिए ज़ख्मों से।
बारामूला है जंग का मैदान
कि मेरा घर
बना है खाईं और खंदके।
कि छतों पर पुती है ऐसी स्याही
कि दिन को रात से भी डरावना बनाए है.
मेरे शयनकक्ष में नमदे नहीं
बिछी है गोलियाँ बंदूके।
मेरी आलमारी में टंगी है छलना और नफ़रते
मेरी रसोई में पकते हैं पैतरे
हिंसा औ' गोलीबारी के।
मेरे आँगन में पड़े है
बरगलाए, बेजान युवा शरीर
जो कल तक ढोते थे फूल
खेते थे नीलकमल से लदी नावे
उगाते थे केसर की फुलवारियाँ
अब करते हैं आग का व्यापार
और झुलसे है अपनी ही आग में।
और उनके बीच पड़ी थी
मेरी माँ।
क्या माँ नहीं?
खूनसने लोथ की गठरी थी बस वहाँ?
यह क्या संदेस लाए हो तुम।
मेरा घर?
कभी घर नहीं जा पाऊँगी मैं?
कब? क्या? कैसे
कह पाऊँगी माँ से?
कि भली-चंगी यहाँ
भला करूँगी क्या मैं!
सुषम बेदी
१२ मई २००८ |