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मन
की माटी |
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सागर तट पर बैठे बैठे, रेखा
सीधी
तिरछी खींची
खारे जल से जाने कैसे, सबने मन की
माटी सींची
नभ थल मिलते से हैं दिखते
कुदरत भी एक छलावा है
नफरत पाले फिरती दुनिया
हर पल मुस्कान दिखावा है
उठती गिरती लहरों से डर, बार-बार हैं
आँखें मींची
लिख प्रियतम का नाम रेत पर
दौड़ाए सपनों के घोड़े
नन्हें हाथों ने भी मिलकर
बालू के कुछ टीले जोड़े
लहरों ने जब सब छीना तो होंठ चबाएँ
मुट्ठी भींची
- यमुना पाठक
१ अक्टूबर २०२४ |
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