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                    गाँव की माटी
 
भीड़ में थकने लगे हैं अब शहर के पाँव
हो सके तो लौट आओ पास, मेरे गाँव

टेरती है नित्य मुझको
गाँव की माटी
वह दुपहरी बाग की
उपलों पगी बाटी
हैं यहाँ कितने घने कंक्रीट के जंगल
बहुत आती याद निबिया और ठंडी छाँव

पूछना मत स्वयं पीछे
छोड़ सब आये,
धूल में भी फूल जैसा
सुख न फिर पाए
भरभराकर ढही माटी से बनी बखरी
छल-कपट के कीच में गहरे सने हैं पाँव

हो गई है व्यस्त दिनचर्या
न पग टिकते
इस शहर में आदमी
देखा गया बिकते
खो गई निश्छल हँसी, वो सूरतें भोली
ज़िंदगी अब जुए जैसा खेल,हर दिन दाँव

कैदखाने में रहेंगे
कब तलक सपने
फिर चलो वापस
न बदले गाँव हों अपने
ढोलकों की थाप निबिया तले वह उमंग
चलो अपनापन तलाशें, पर कहाँ, किस ठाँव

- प्रो.विश्वम्भर शुक्ल
१ अक्टूबर २०२४
           

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