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                   मुझको बुलातीं हैं
 
भेज सोंधी पातियाँ भीगी हवाओं से
गाँव की पगडण्डियाँ
मुझको बुलाती हैं

द्वार का वो नीम-चौरा वो लिपा आँगन
धूल-मिट्टी में चहकता फूल सा बचपन
वो खुला आकाश, धरती का वो अपनापन
था वही गोकुल हमारा, वही वृंदावन,
छोड़ आये थे कभी जिस देहरी को हम
वो अभी तक याद के
दीपक जलाती है

फूलते जब कास वन लेते विदा बादल
उतरती ओढ़े शरद ऋतु रेशमी आँचल
सिलसिले होते शुरू उत्सव- उछाहो के
जाग उठती फिर उमंगों में नयी हलचल
दमक उठती देह टूटी छत-दीवारों की
शुभ चित्र अंकित भीतिया
फिर जगमागाती हैं

धूप वाले दिन, वो ठंडी छाँव वाले दिन
आस्था- विश्वास, भक्ति - भाव वाले दिन
लौटते वो पंछियो के दल किनारों पर
तिर रही फिर से नदी में नाव वाले दिन
झूमती संग महमहाते धान खेतों के
ये हवाएँ जिंदगी का
गीत गाती हैं

दूर तक फैला हुआ संसार माटी का
ये जग नहीं कुछ और बस विस्तार माटी का
पर्वत- शिखर, ये घाटियाँ ये खेत, ये झरने
हर रूप में ढलता हुआ आकार माटी का
उम्र भर मन भूल पाता है नहीं उसको
जो नेह का रिश्ता अमिट
माटी बनाती है

- मधु शुक्ला
१ अक्टूबर २०२४
           

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