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                   टुकड़ा कागज का
 
उठता-गिरता, उड़ता जाए
टुकड़ा कागज़ का

कभी पेट की चोटों को
आँखों में भर लाता
कभी अकेले में भीतर की
टीसों को गाता
अंदर-अंदर लुटता जाए
टुकड़ा कागज़ का

कभी फ़सादों-बहसों में
है शब्द-शब्द उलझा
दरके-दरके शीशे में
चेहरा बाँचा-समझा
सिद्धजनों पर हँसता जाए
टुकड़ा कागज़ का

कभी कोयले-सा धधका,
फिर राख बना, रोया
माटी में मिल गया कि जैसे
माटी में सोया
चलता है हल, गुड़ता जाए
टुकड़ा कागज़ का

- अवनीश सिंह चौहान
१ अक्टूबर २०२४
           

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