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यही माटी देश
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और फलते, और भी
तनकर खड़े होते
नहीं कटते अगर
माटी से जुड़े होते
दृष्टि देती, श्रवण देती
घ्राण देती है
यही माटी देह देती
प्राण देती है
चाक पर इसकी-
अगर चढ़ते- घड़े होते
हवा, पानी, अन्न
सूरज, धूप, बादल, छाँव
यही माटी देश-घर है
यही माटी गाँव
यहीं उगते
इसी में पलते-बड़े होते
रोपते इतिहास
थोड़ा प्यार पा जाते
बहुत सम्भव था
कोई आकार पा जाते
काश! माटी के लिए
हम भी लड़े होते
- शुभम् श्रीवास्तव ओम
१ अक्टूबर २०२४ |
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