अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

           
                    माटी के प्रारूप
 
माटी तेरे रूप के, हैं कितने प्रारूप।
दीपक बन जलता कहीं, कहीं देव का रूप।।

माटी चढ़ती चाक पर, गढ़ता रूप कुम्हार।
माया बुनती जाल है, खूब रचा संसार।।

माटी माँ सम जानिये, मन में भरे उमंग।
मिट जाते संताप सब, जुड़ माटी के संग।।

सुत लौटा परदेस से, छोड़ सभी सम्बन्ध।
खींच उसे ले आ गयी, इस माटी की गंध।।

पवन अगन जल तेजमय, यह सारा संसार।
जीवन के सन्दर्भ में, माटी है आधार।।

सारे जग में व्याप्त है माटी के गुण तीन।
सत्व रजो तम भाव में, जग सारा है लीन।।

माटी माटी है नहीं, माटी होती खास।
इसके अंतस में छिपा, युग युग का इतिहास।।

- श्रीधर आचार्य 'शील'
१ अक्टूबर २०२४
           

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter