अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

           
                मिट्टी का यह आदमी
 
मिट्टी का यह आदमी, मिट्टी के सब साज़
खूब बजाये फिर मरा, कर मिट्टी पर राज

इस मिट्टी का क्या करें, नहीं रहे जब प्राण
मिट्टी पर मिट्टी गिरी, मिला जगत से त्राण

यह माटी की कोठरी, ढूँढ न पाए त्राण
कब छूटे कब उड़ चले, पंछी जैसे प्राण

जिनकी जड़ माटी जुड़ी, वे फूले भरपूर
उन फूलों पर छा गया, माटी का सब नूर

फूल गुलाबी लाल या, नील बैंगनी पीत
काली माटी में छुपे, कितने रंगी मीत

अपने से न हटाइए, माटी भरा लिबास
खुशबू से भर जायगा, रह माटी के पास

माटी में मिल खो गये, जो अपनी पहचान
उन बीजों का पीढ़ियाँ, मान रहीं अहसान

माटी की खेती करी, माटी धन है पास
मुझमें अब रच बस गई, माटी भरी सुवास

इतना नहीं गुरूर कर, ओ माटी के शेर
माटी में मिल जायगा, तू भी देर अबेर

- कुँअर उदयसिंह 'अनुज'
१ अक्टूबर २०२४
           

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter