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माटी
के मन में बसा |
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माटी के मन में बसा, बीजों
का त्योहार
देती भर भर टोकरी, अपने उर का प्यार
कुंभकार जब गारता, माटी का हर अंग
माटी देती उमगकर, कुंभकार का संग
लकड़ी सड़ माटी बने, माटी बनती पेड़
माटी में बूटी उगे, जिसको चरती भेड़
माटी सरजक बीज की, बीज मृदा का पुत्र
यहां वहां रक्षण करे, माटी ही सर्वत्र
कलश सुराही दीयना, कहते मन की बात
मन वाणी से बोलते, माटी इनकी जात
तेल जले बाती जले, माटी रहती मौन
चुप्प समर्पण पूछता, नश्वर जग में कौन
बरगद की काया बड़ी, करती माटी रोज़
जड़ रहती मौन हो, भरती रहती ओज
माटी का मतलब बड़ा, नहीं समझना धूल
माटी में ही उपजते, कांटे कलियाँ फूल
माटी लेकर साथ में, जाते लोग विदेश
कहते अपने देश का, रख लेते परिवेश
रे मन रखना याद में, माटी की सौगंध
हर मौसम का पावना, हर मौसम की गंध
- कल्पना मनोरमा
१ अक्टूबर २०२४ |
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