कार्तिक में ठिठुरन की बातें

 

 
कातिक में ठिठुरन की बातें
नन्हें दिन हैं लम्बी रातें

बिंदिया उगी भोर सिंदूरी स्वप्न-लोक की सैर अधूरी
कोने में छुप बैठी निंदिया पलकें खोलीं है मजबूरी
सूरज शिशु सा भोर निशा को
भर किलकारी मारे लातें

बिखर गईं स्वर्णिम मुद्राएँ तड़के उठें अंक भर लाएँ
ठुमक रही गौरैया आँगन खगकुल का संगीत चुराएँ
धूप गुनगुनी छत पर महफिल
रिश्तों-नातों की बरसातें

हवा सुरसुरी देह कचोटे चाय सुडकते भर-भर लोटे
फिक्र न कोई अनगिन बातें सारे खुश छोटे क्या मोटे
सरसों पालक मकई रोटी
जाड़े की घर-घर सौगातें

कठिन परिश्रम कौन सराहे खेत जोतने को हलवाहे
हाड़ कँपाती ठंडक में भी उठ पड़ते चाहे-अनचाहे
चिंता उन्हें बजे कब ढोलक
जिस जिस की होनी बारातें

- प्रो.विश्वम्भर शुक्ल
१ नवंबर २०२५
 

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