पावन कार्तिक आया है

 

 
नभ में दीपक-सा चाँद जले, जल में तारों की छाया है
पावन कार्तिक आया है

पवन सुगंधित तुलसी वन से, रंगोली डोले अंगनाई
गोबर लीपे आँगन में भी सजती रैन सुहानी आई
गंगाजल की धारा बोले- सुन रे मन अब निर्मल हो जा
पापों की परतें धोकर के- ज्योतिर्मय दीपावलि हो जा
मन के भीतर धुन आरति की
भक्ति की मीठी माया है
पावन कार्तिक आया है

पथ पर रौशनियाँ उतरी हैं, साँझ सजी है आराधन में
कनक समान लगे हर पत्ती प्राण सुमंगल श्रद्धा-तन में
घर-घर दीपक, घट-घट बाती उत्सव की यह बेला प्यारी
अंधकार से उजियारे तक चली जा रही कनक सवारी
लक्ष्मी पूजन कर मंदिर में
सुख सौभाग्य जगाया है
पावन कार्तिक आया है

- निरुपमा सिंह
१ नवंबर २०२५

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter