देव जागे हैं

 

 
देव जागे हैं
अजागा भाग्य सोया

बरसता पानी कहीं कम है, कहीं ज्यादा
वजीरों का है खिलौना आदमी प्यादा
धसकता पर्वत नदी में डूबती बस्ती
ज़िंदगी मँहगी बहुत है, मौत है सस्ती
रूप चौदस ने अजाने
नूर निज खोया

दिवाली आई दिवाला भेंट में लाई
पूज गोवर्धन बचा पाई नहीं भाई
सिसकती-बहिना--छठ-पर-सूर्य-क्यों-निकला
पुँछ गया सिंदूर जागा देश अरि दहला
ले लिया बदला नवाशा
बीज भी बोया

क्वांर के सपने कुआँरे रह गए अपने
कार्तिक की बाढ़ सुख-दुख सब लगे बहने
योग निद्रा तजो अब जागो विधाता हे!
हो नहीं नरमेध रोको समर त्राता रे!
आ रहा अगहन न हो
जन-मन असूया

सजग मतदाता परखकर नीतियाँ सब की
चुने जन प्रतिनिधि न देखे जातियाँ अब की
लोक मंगल पर्व हम हर दिन मनाएँगे
देव जागें खुद नहीं तो हम जगाएँगे
समय साक्षी है न
धीरज-धर्म खोया

- संजीव वर्मा सलिल
१ नवंबर २०२५

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