कल्पना को रूप का आधार

 

 
कल्पना को गीत का आधार दे दो
यामिनी को रुप का आभार दे दो

शीत की ठिठुरन घुली है अब हवा में
दिवस हैं लघु रातें लंबी सी फिजां में
चंद्रिका जब पिघलती हो भोर नभ में
स्वर्ण सूरज को हृदय का प्यार दे दो

मास कार्तिक का सहज आह्वान करता
श्री विष्णु की अभ्यर्थना का गान करता
दीपकों की वर्तिका में स्नेह का प्रतिदान दे कर
आज गंगा धार को स्वर्णिम लहर गतिमान दे दो

रोशनी यह पूर्णिमा के चाँद सी
चाँदनी बन तुम इसे शृंगार दे दो
भावनाओ में समर्पित स्नेह मेरा
नामित नयनों में छिपा आभार दे दो

पर्व षष्ठी का नयी आशा जगाता
कामना का नित्य नूतन गान रचता
आज सम्मुख याचना के स्वर सजे हैं
हे देव मन की कामना को सार दे दो

- पद्मा मिश्रा
१ नवंबर २०२५

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