उलझी अलकें झटक रहा है

 

 
दुल्हन बनकर मटक रहा है कार्तिक मास
उलझी अलकें झटक रहा है कार्तिक मास

रगड़-रगड़ इल्लत धुलवाई
फटी बिवाई है सिलवाई
उबटन हल्दी हुई मरम्मत
लाल महावर गई रचाई
हाय-हाय किस तरह निहारूँ
ले-ले चुस्की सटक रहा है कार्तिक मास
मुझको ख़ुद में गटक रहा है कार्तिक मास

श्वाँस-श्वाँस भीषण दुर्गंध
टूटे लँगले मृत संबंध
अनिल अनल जल की मिट्टी
उठा गदेली कर अनुबंध
फूँक-फूँक कर मंत्रोच्चारण
चन्दन अच्छत छिटक रहा है कार्तिक मास
अँधियारे को खटक रहा है कार्तिक मास

ख़ुशबू का उठ रहा धुआँ
उँजियारे से भरा कुँआ
दुम्म दबाए रंगा सियार
चिल्ला भागे हुआँ-हुआँ
नाच रहीं हर ओर रौनक़ें
झालर बनकर लटक रहा है कार्तिक मास
सबमें सुंदर चटक रहा है कार्तिक मास

- जिज्ञासा सिंह
१ नवंबर २०२५

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter