होली
है
!!

 

 

 

 

रंग में भंग


 

भंग का रंग चढ़ा कर, हम पहुँचे खेलन होली
वहाँ खड़ी एक बाला, तब हमसे कुछ यूँ बोली।
भंग चढ़ाकर आए हो, रंग ना साथ में लाए हो
ना कपड़े पहने होली के, बोलो तुम हो किस टोली के।

घूम रहा था सिर फिर भी, हमने घूँघट के पट खोले
बात ज़रा-सी, पहले खाँसी, फिर हम कुछ यों बोले।
तुमने भंग चढ़ा हुआ देखा, दिल में भरा ये रंग ना देखा
तुम से होली खेल ना पाते, अगर साथ में टोली लाते।

बात हमारी शायद उस, गोरी के मन को भा गई
भर पिचकारी, रंग लगाने, करीब हमारे वो आ गई।
मिला इशारा जब गोरी का, हम थोड़े से शेर हुए
उस तक रंग पहुँच जो पाता, उससे पहले ढेर हुए।

-तरुण जोशी
१७ मार्च २००८

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