मन करता है फिर कोई अनुबंध लिखूँ
गीत गीत हो जाऊँ ऐसा छंद लिखूँ
करतल पर तितलियाँ खींच दें
सोन सुवर्णी रेखाएँ
मैं गुंजन गुंजन हो जाऊँ
मधुकर कुछ ऐसा गाएँ
हठ पड़ गया वसंत कि मैं मकरंद लिखूँ
श्वास जन्म भर महके ऐसी गंध लिखूँ
सरसों की रागारूण चितवन
दृष्टि कर गई सिंदूरी
योगी को संयोगी कह कर
हँस दे वेला अंगूरी
देह मुक्ति चाहे फिर रसबंध लिखूँ
बंधन ही लिखना है तो भुजबंध लिखूँ
सुख से पंगु अतीत विसर्जित
कर दूँ यमुना के जल में
अहम समर्पित हो जाने दूँ
कल्पित संकल्पित पल में
आगत से ऐसा भावी संबंध लिखूँ
हस्ताक्षर में निर्विकल्प आनंद लिखूँ
रामस्वरूप 'सिंदूर'
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