बसंती आश्वासनों की
बढ़ गई है डोर
गोदनों वाली नदी
फिर पिंडलियाँ हँस-हँस दिखाए
खिली हैं...
नवमल्लिका पर
धूप की अनगिन शिखाएँ
सद्य:स्नाता-सी खड़ी है
फिर प्रगंधा भोर
छू गई
जब पेड़ को
अल्हड़ हवा की साँस
बो गई उसकी समूची
देह में रोमांच
तन गए शर कान तक
जब से महकता बौर
राजेंद्र गौतम
१७ मार्च २००८
|