धूप के कुछ फूल धरता
आ गया मौसम
धुंध में लिपटी नदी की
देह पर रचतीं अनुष्टुप
लेखनी-किरणें
दूब की छुवनें
किनारों की त्वचा में
फिर सिहरनों-सी लगीं तिरने
लाल चंदन-धूल भरता
आ गया मौसम
रागिनी जो...
चीड़-वन में कल ठिठुरती थी
महकती वह सिवानों में
फिर हवाओं में उगे हैं
पंख रेशम के
गगन नापा उड़ानों ने
एक आदिम भूल करता
आ गया मौसम
ताल की फैली हथेली पर
चुटकियाँ भर
भोर ने फिर गंध धर दी है
गंदुमी होती दिशाओं ने
हिरणियों के गात में
फिर गमक भर दी है
दृष्टियाँ अनुकूल करता
आ गया मौसम
राजेंद्र गौतम
१७ मार्च २००८
|