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ललित ललामी है रवि की,
सुखद सलामी है छवि की,
दुरित गुलामी है पवि की।
गेरत लाज चिरी पै गाज,
गहराबत,
आबत,
ऋतुराज।
सौंधी-सौंधी बहे समीर,
चहकत चिरियाँ पिक अस्र् कीर,
कुंज-कुंज भौरन की भीर।
छलकत छवि फूलन ते आज,
मुसकाबत,
आबत,
ऋतुराज।
तरु बंदहि सोभा संपन्न,
नाहिं बिपिन हैं आज विपन्न,
प्रकृति नटी है परम प्रसन्न।
मनहु मनोज सनेह सुराज,
गहराबत,
आबत,
ऋतुराज।
नव
किसलय नव कलिका फूल,
नवल लता नव धरा दुकूल,
कूजित कुंज कलिंदी कूल।
छिति छोरन छायो सुखसाज,
हरसाबत,
आबत,
ऋतुराज।
आमन-आमन
लागे बौर,
अंकुअन माहीं लागे मौर,
कोकिल कू कै ठौरहि ठौर।
साजत है संगीत समाज,
उमगाबत,
आबत,
ऋतुराज।
निर्मल
नीर, अकास अमल,
बन पलास, सर खिले कमल,
जड़ जंगम जग जीव नवल।
रूप मनोहर घारे आज,
इतराबत
आबत,
ऋतुराज।
अंग-अंग
आभा झलकंत,
दरसत रूप अनूप बसंत,
जानै कित कूं गयौ हिमंत।
सुख सरसावत संत समाज,
उमगाबत,
आबत,
ऋतुराज।
मही रही
द्युति हरस समेत,
भए बसंती सरसों खेत,
नवल जमन जल जमुना रेत।
सीस धरे केसरिया ताज,
इठलाबत,
आबत,
ऋतुराज।
-राधेश्याम
'प्रगल्भ'
९ मार्च
२००६
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