आया फागुन बज उठे ढोलक ढोल मृदंग,
मन जैसे सागर हुआ धड़कन हुई तरंग।
रस की इस बौछार में घुले न कपट कुढंग,
रिश्तों को निगले नहीं कहीं जलन की जंग।
इठलायें अठखेलियाँ मचलें मौन उमंग,
साँसों में सजते रहें अरमानों के रंग।
टूटी कड़ियाँ जोड़ लें और बढ़े सब संग,
बेगानों को भी चलें आज लगा ले अंग।
बाहों के घेरे अगर हुए न अब भी तंग,
फिर कैसा किसके लिए होली का हुड़दंग।
मदनमोहन अरविन्द
९ मार्च २००९ |