जबसे दूर हुए तुम मुझसे
सभी पड़ोसी करें ठिठोली
मत पूछो तुम हाल हमारा कैसे कटी हमारी होली।
इधर तुम्हारा पत्र न आया
अपने सब बीमार हो गए
खाली हाथ रह गया मौसम व्यर्थ सभी त्योहार हो गए।
देख रहा है घर में फागुन बुझी-बुझी लग रही रंगोली।
कैसे कटी हमारी होली।।
कुछ तो तुम अन्याय कर रहे
कुछ करता भगवान हमारा
उजड़ रहा है मन उपवन का हरा भरा उद्यान हमारा
मिलने कभी नहीं आते हैं अब हमसे अपने हमजोली।
कैसे कटी हमारी होली।।
रोज मुँडेरे कागा बोले
लेकिन कुछ विश्वास नहीं है
अपनी इस धरती के ऊपर अपना वह आकाश नहीं है
किसको रंग गुलाल लगाएँ लेकर अक्षत चंदन रोली।
कैसे कटी हमारी होली।।
हमने बड़ी मनौती की है पूजे मंदिर और शिवाले
किंतु पसीजे नहीं कभी तुम कैसे हो पत्थर दिल वाले
हमें न अब तक मिला कभी कुछ खाली रही हमारी झोली।
कैसे कटी हमारी होली।।
-डॉ. अशोक आनन 'गुलशन'
१७ मार्च २००८ |