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   सुनो फागुन

सुनो फागुन,
पड़ चुके हैं पुराने सब रंग,
कोई नया लाओ

रंग ऐसा एक वो जो
चढ़े लेकिन, दिख न पाए
फैल जाए
जो जनम से मृत्यु की
चौहद्दियों तक बिन लगाए

सुनो फागुन
सरफिरी आसक्तियों पर
विरति की उँगली फिराओ

दृष्टियों में ठहर कर जो
‘तिरगुनी’ के तार बाँचे
हाँ वही जो
अँधेरों में भी उजालों
के नए विस्तार बाँचे

सुनो फागुन
भोर से भी दिव्य कोई रंग
रजनी पर चढ़ाओ

हो तरल जल सा घुले
हर रंग जिसमें सहजता से
और हो वो
सरल इतना घुल सके हर
रंग में जो सरलता से

सुनो फागुन
ब्रह्म की माया सरीखा
भले भ्रम कोई बिछाओ

- सीमा अग्रवाल
१ मार्च २०२४
   

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