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       रंग उत्सव

बिखरे हैं रंग
सजी धरती
पवन बसन्ती डोल रहा

होली आने की आहट से
पुलक रहा है अंग-अंग
मन में है मादकता छाई
रह-रह कर उठती है तरंग

अधरों पर
गीत उमंगों का
भेद हिया का खोल रहा

भूले वियोग के चुभते पल
परदेशी घर आया अपने
फिर भावों ने अंगड़ाई ली
नयनों में जगे मदिर सपने

रह-रह कर
आती मुस्कानें
मौन मुखर हो बोल रहा

-- मधु प्रधान
१ मार्च २०२४
   

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