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          आत्मज्ञान

होली आई!
कपड़े मेरे सराबोर
झेले कईं पिचकारियों से

रंग जुदा जुदा
अहंकार के, विनोद के
मूर्ख समझने के
मित्रता के, आनंद के

सहयोग की स्मृति के
बौछार का तीव्र वेग
बोरियत को दूर फेंकता हुआ
जिसमें बहती चली गई
कुंठा, चिढ़ और गाँठे मन की

फिर एतराज न हुआ कि
इसमें घुले मिले थे रंग
घृणा के, क्रोध के, ईर्ष्या के
क्योंकि छिड़कने के लिए इन पर
मेरे रंगों में भी
इसके सिवा कुछ न था।

- हरिहर झा
१ मार्च २०२४
   

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