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फागुन आया धीरे-धीरे

गौरैया चिकनाई दाना भूल गयी
अपनी धुन में होरी गाना भूल गयी
उस पर ऐसा रंग चढ़ा दुनियादारी का
खपरैले में झोंझ लगाना भूल गयी
पगली का तन-मन
पछुवाया धीरे-धीरे

मनीप्लान्ट से हरी हुईं बूढ़ी दीवारें
रंगीनी से रिश्तों की ढँक गयीं दरारें
हरसिंगार हँसे अपनी दरबानी पर
ड्योढ़ी की फगुवायी नयी जवानी पर
गमले में कैक्टस
अँखुआया धीरे-धीरे

मिश्री घोले बोल स्वाद कोकाकोला का,
बाबा देवर हुए रंग बदले चोला का
होरियारे पी गये, भाँग जो पड़ी कुँए में,
होली तो जल गयी फँसे प्रह्लाद धुँए में
फिर अम्बर तक कुहरा
छाया धीरे-धीरे

- उमाप्रसाद लोधी
१ मार्च २०१८

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