काटे से कटती
नहीं, जाड़े की ये रात,
शाल-रजाई-कोयले, वही ढाक के पात।
फागुन से सावन
हुआ, सावन से फिर माघ,
माघ गया बोला नहीं, निकला पूरा घाघ।
चाँद शरद का
मुँहलगा, भगा चिकोटी काट,
घंटों सहलाती रही, नदी महेवा घाट।
तितली जैसी
उड़ रही, घसियारिन रंगीन,
गेहूँ कहता दोनली, जौ कहता संगीन।
चाँद देखने के
लिए, छत पर आयी ओस,
सहसा बादल-सा घिरा, सारा पास-पड़ोस।
शाम हुई फिर
जम गये, सुर्ती-चिलम-अलाव,
खेत-कचहरी-नौकरी, गौना-ब्याह-चुनाव।
अलसी पर
जी-जान से, चना हुआ कुर्बान,
घर का हुआ न घाट का, मलता हाथ किसान।
बिगड़े हुए
रईस का, रहा न कोई यार,
जाड़े में दुख दे रहा, मलमल ताबेदार।
रोटी तेरे हाट
में, ऐसा छूटा साथ,
कहाँ मटर की छीमियाँ, कहाँ हमारे हाथ।
बिन आँगन का
घर मिला, बसे पिया भी दूर,
आग लगे इस पूस में, खलता है सिंदूर।
धूप भरी आँखों
मिली, गलियारे की ओट,
जैसे गोरी गाँव की, मन में लिये कचोट।
- कैलाश गौतम |