मैं अकेला जा
रहा हूँ
बर्फ-सी ठंडी हवायें
सनसनाहट की जबाँ में
कान में कुछ कह रही हैं
और सन्नाटा बहुत धीरे सुरों में
चाँदनी ओढ़े हुए सोते दरख्तों को
न जाने क्या बताने पर तुला है
और यह बिजली के खम्भे
अपनी तन्हा
आँख रस्ते पर बिछाए
जाने किसके मुन्तजिर हैं
कितनी रातों से खड़े हैं
रास्ता नंगा पड़ा है
इतनी सर्दी में ठिठुरता भी नहीं है
किस बिरह की आग में तन जल रहा है
इस तरह के जाने कितने उल्झे-उल्झाए मनाज़िर
तुम जो होते
सनसनाहट की जबाँ को
और इन धीमें सुरों को
और खम्भों की घुटन को, रास्ते की तिशनगी को
जानने की बात करते
उलझे-उलझाये मनाज़िर के सिरों को
पा ही लेते या न पाते तो उलझते
और फिर
लड़ते-झगड़ते रूठ जाते
कुछ-न-कुछ तो बात बनती।
- फज़ल
ताबिश |