सरेशाम ही चुप
हुए, अलसाये-से गाँव।
कोहरे की चादर तनी, बढ़े धुएँ के पाँव।।
आँगन में गिरने
लगे, चमकीले हिम-फूल।
झोंपड़ियाँ सहमी खड़ी, डाले तम की झूल।।
घर-बाहर के
काम कर, पायल पहुँची सेज।
बाहों से कंगन कहे, आँचल तनिक सहेज।।
घुटनों से
दाढ़ी मिली, सिकुड़-सिमटे गात।
काली कमरी ओढ़कर, जगी शिशिर की रात।।
पाँच-सात मिल
तापते, सुलगे, दबे अलाव।
बातों की लपटें उठीं, झुलसे सभी अभाव।।
कल पानी लगना
कहाँ, कौन निराये खेत।
किसे ब्लाक में जूझना, कागज-पत्र समेत।।
पछलहरा पानी
भरे, झीनी चुनर साथ।
भोरहरी तकने लगी, जगमग पूरब-माथ।।
छप-छप करतीं
बेड़ियाँ, जीवन रहीं उलीच।
डोल गले में डालकर, डोले रहट-दधीच।।
फुनगी तक
सूरज बढ़ा, गरमाये तरू-पात।
दोपहरी ले आ गयी, चना-चबैना-भात।।
नयी वधू-सी
संकुचित, नरम रेशमी धूप।
छुईमुई-सा तन मिला, कर्पूरी मन-रूप।।
- राकेश
त्रिपाठी
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