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दीपावली महोत्सव
२००४
-
दिये जलाओ
संकलन

राम की दीवाली

दीवाली संकल्प

केकैई का मन डरा डरा
सहमा सहमा सा घबराया हुआ
राम के आने का समय आया
सब और खुशियां ही खुशियां छाईं
नगर निवासियों ने सजाए बन्दन
.तोरन द्वार
नगर डगर सब सजा सजा
महलों की शान में बिगुल बजा
दीयों व फूलों से सजी कौशल्या एवं
सुमित्रा की दीवाली
मन नाचता मोर शोर कर
आएँगें किसी समय भी राम घर
दीप मालाओं से रौशन घर घर
दीयों की रौशनी ने
किया दूर चौदह वर्ष का अंधकार।

अब राम सीता और लक्षमण
के मुख को निहारें गें
दीयों के प्रकाश में
जो छुपा हुआ था अंधकार
मन हर्षित डोल रहा
हर एक का मन बोल रहा
कसै मिलेगी केकैई मइया
आँख ना मिला पाएँगीं दइया।


पर राम आए प्रफुल्लित मन
सब से गले मिले प्रसन्न मन
चारों ओर निहारा ..
कहाँ हैं मेरी केकैई मइया?
दौड द्वार पर उन के धाए
चरण छू आँसू बहाए
मन का मैल धुल गया
मां का स्नेह मिल गया
कुछ मुंह से केकैई बोल न पाई
आखों ही आखों से व्यथा सुनाई
राम उन्हें द्वार से बहार लाए
उन के हाथों से दीये जलवाए
दानों के निर्मल हृदय मिल गए
रौशनी से मन भर गए
ऐसी मनी थी केकैई राम की दीवाली।

—सरोज भटनागर
 

आओ दीप जलाएँ
दीवाली पर्व मनाएँ
घर घर में ऐसे दीप जलाएँ
भीतर बहार के अंधियारों को
क्यों ना हम मिल जुल कर मिटाएँ
देख प्रगती पडोसी की
हम क्यों ललचाएँ
दुर्गति करने जो हों आमदा
उन भूले भटकों को
सदमार्ग पर लाएँ।

जहाँ हो अंधविश्वास
अज्ञानता बन तिमिर छाए
जब मानव अहंकारवश हो भरमाए
कही जगमगाहटों में
वर पिता बने धन लुटेरे
उन की दृष्टि विकसित कर
भीतर बहार के अम्धियारों को मिटाएँ
क्यों ना हम मिल जुल कर
दीप जलाएँ।

जहाँ घने अंधेरों ने धर्म स्थानों में
भ्रम है फैलाए
घर आँगन में दलानों में
प््राीति नहीं नफरत पैलती
मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारों में
आज मानवता के घातक
शरण पाते इन की दीवारों में
करें सत्य धर्म पालन
भीतर बहार के अंधियारों को मिटाएँ
क्यों ना हम मिल जुल कर
दीप जलाएँ।

जलें दीप से दीप
प्रकाश हो सभी परिवारों में
तज अधर्म सत्य मार्ग पर अग्रसर
भूलें जो हुईं फिर ना दुहाराएँ
भीतर बहार के अंधियारों को मिटाएँ
क्यों ना हम
मिल जुल दीप जलाएँ।

—कैलाश भटनागर

दीपों के पर्व में

दीपों के पर्व में
तुम खिलखिलाओ
मन के अंधेरों में भी
दीप जलाओ।

गहन अंधकार में
सूझे न दिशाएँ
ये अमावस
कहाँ से घिर आई
रोशनी लाओ
नूतन राह सुझाओ
मन के अंधेरों में भी
दीप जलाओ।

राह भूले नभ में
भटकते तारे
घनघोर कालिमा में
नहीं रोशनीपुंज
चन्द्र किरणें
सहेज कर लाओ
मन के अंधेरों में भी
दीप जलाओ।

दिनों के फेर से
टूटकर बिखरे हैं जो
बुझे बुझे मन से
दीपों को तकते
टूटे दिलों में चाहतों के
दिए जलाओ
मन के अंधेरों में भी
दीप जलाओ।

दिए की लौ में जला
कलह द्वेष संग-संग
हर शाख
हर पात पर
खिला नवरंग
खिलती कलियों के
संग मुस्काओ
मन के अंधेरों में भी
दीप जलाओ।

खुशियों से दिन के
उजाले में चाँदनी
चिंतित दुखी हृदय
भूले दिवाली भी
उन्हें संग ले
ज्योत के संग
ज्योत जलाओ
मन के अँधेरों में भी
दीप जलाओ।

-वीणा विज 'उदित'

    

 

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