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दीपावली महोत्सव
२००४

दिये जलाओ
संकलन

हमारी छोटी सी दीवाली

 

सर्दी से पहले की सर्दियाँ हैं
जब पीने के लिए ठण्डा पर नहाने के लिए
गरम पानी का मन करता है
जेबों में भुनी हुई मूँगफलियाँ प्रकट होने लगती हैं
और चाय में अदरक का ज़ायका अनायास ही बढ़ जाता है

बच्चे खिलौने की पिस्तौल से धमाके करते हैं
पितागण खरीददारी की सूचियाँ तैयार करते हैं
माताएँ नए रजत पात्र और स्वर्ण अलंकार लातीं हैं
हर दुकानदार या उद्योगपति हर वस्तु के साथ
कुछ न कुछ मुफ्त देने लगता है

कितनी अच्छी दीवाली होती है
जब बच्चे बोतल से रौकेट छोड़ते हैं
नन्हे नन्हे बम घर के आँगन में बोलते हैं
और छोटी सी आतिशबाज़ी
घर की चारदीवारी में चकाचौंध कर देती है

कितनी बेहतर है उस दीवाली से
जो कुछ बड़े लोग
कुछ बड़े बड़े लोग मनाते हैं
बड़े बड़े धमाके करते हैं
असली पिस्तौलों बन्दूकों से
विशालकाय आतिशबाज़ी रचाते हैं
रौकेट बोतलों से नहीं टैंकों से छोड़ते हैं
जिसकी चकाचौंध घर की दीवारों में कैद नहीं रहती
अन्तर्राष्ट्रीय सीमाओं को पार कर जाती है
अक्सर दूरदर्शन पर सीधा प्रसारित भी होती है

इस सबसे तो अच्छी है
हमारी छोटी सी दीवाली
जिसमें गोली नहीं
रंगोली स्वागत करती है
लक्ष्मी की प्रतीक्षा मन में
और मिष्ठानों का थाल सदन में
सदैव विराजमान रहता है

—शलभ श्रीवास्तव

आओ इस बार

आओ इस बार मनाएँ ऐसी दीवाली,
खुशियों से भर जाए हर बगिया और डाली,
गीत गाए दिल के कोयल मतवाली,
फैले हर जगह संपन्नता की हरियाली,
एक दूजे को दे प्यार की प्याली,
और गाए बधाई की कव्वाली,
न जाने दें इस दिन को यों खाली,
आओ इस बार मनाए ऐसी दीवाली।

—अवनीश तिवारी

दीपावली मनाएँ

आओ दीपावली मनाएँ
घर घर घी के दीप जलाएँ
तनमन की आभा चमकाएँ
श्री राम के अभिनन्दन में
पलक पांव हम बिछाए
दूर करे अन्धियारा जग में
पावनता के दीप जलाए
धर्म, जाति का भेद कहाँ है
गया अँधेरा दीप यहाँ है
घर घर मंगल साज सुनाएँ
गोवर्धन गिरधर को मनाए
धरती को ही स्वर्ग बनाएँ
आओ दीपावली मनाएँ

—सत्यवान शर्मा

हर दिन मेरी दीवाली है

हर दिन मेरी दीवाली है
तुम हो जब से सम्मुख मेरे
हर दिन मेरी दीवाली है।
तुम में कितनी ज्योति छुपी है
झलक मैंने इसकी पा ली है।

मुस्कानों के दीप जला कर
दीवाली तुम करती रहना
मेरे मन के अँधियारे को
यों ही रोशन करती रहना।

चाहे जितने दीप जलाऊँ
हर लौ में तुम ही दिखती हो
जितना ही मैं खुद में ढ़ूँढ़ूँ
हर रेशे में तुम मिलती हो।

इस पृथ्वी पर उस मालिक ने
अरबों दिये जला रक्खे हैं
दो आँखों के दीप तुम्हारे
मेरे लिए सजा रक्खे हैं

इन आँखों की चमक लिए तुम
दीप मालिका बनते रहना
चाहे जितनी पंक्ति सजी हों
तुम बस पहला दीपक रहना

—डॉ रमाकांत शर्मा

दीवाली कैसे मनाऊँ

दीवाली कैसे मनाऊँ?
एक प्रश्न खुद से पूछता हूँ
उत्तर पाने को जूझता हूँ
दीवाली कैसे मनाऊँ?
बम–पटाखों के शोर में
क्या एक दीया जलाऊँ उम्मीद का
कि पा लेंगे हम काबू
प्रदूषण के बढ़ते इस प्रकोप पर?
दीवाली कैसे मनाऊँ?
खुशियाँ कहाँ से खोज लाऊँ?
कि जलता नहीं दीया
हर घर में आज भी
तो फिर सौ–सौ दीये क्यों जलाऊँ?

—सौरभ आर्य

    

 

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