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            | धूप के 
			पाँव   |  | गुलमोहर के फूल |  
              |  |   |  
              |  |  | दिनेश शुक्ल    |  
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              |  | तन से रहे विदेह हम, मन से कोमल शांत
 समय नदी में बह गए सपनों के एकांत।
 
 गंध, पंखुरी, रोशनी, धूप, छांव, आकार
 छोटे छोटे डर हमें चौंकाते हर बार।
 
 कैसे रस्ते आ गये, कैसे आये मोड़
 बीच डगर में चल दिये पांव तुम्हारे छोड़।
 
 रहे आंख में तैरते छवियों के संसार
 मन में गहरी चुप्पियां, बो गए नमस्कार।
 
 कुछ पीला कुछ मूंगिया, कुछ बादामी बेर
 पगडण्डी पर झुक गया, हंसता हुआ कनेर।
 
 मन सीपी सागर हुआ, कभी हुआ यह शंख
 कभी हुआ आकाश में, तेज़ हवा का पंख।
 
 हंस कर बोली अल्विदा, पगडण्डी की धूल
 सन्नाटा बुनते रहे, गुलमोहर के फूल।
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