गुझिया के हाथों की गुझिया

 

 
गुझिया के हाथों की गुझिया
फिर खाने का मन होता है

एक रंग था मेरे मन में
एक रंग था उसके मन में
दोनो रँग जब मिल जाते थे
होती थी हलचल बचपन में
खुल जायें फिर वही झरोखे
आकुल इतना मन होता है

जीवन की कुछ आपाधापी
कामकाज की कुछ चिन्ताएँ
सबने तोड़ा थोड़ा-थोड़ा
लोकलाज कुछ आशांकाएँ
मलते लाल गुलाल गाल पर
टेसू जैसा मन होता है

उसके अनगिन चित्र सहेजे
पत्र अभी भी धरे हुए हैं
मिसरी घोल रही धुन कजरी
स्वप्न गुलाबी हरे हुए हैं
जाकर चौखट पर मिल आऊँ
फागुन में फिर मन होता है

- डॉ. शैलेश गुप्त 'वीर'
१ मार्च २०२१

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