भाँग की गुझिया

 

 
गुझिया का जो भी मिले, रसना को रस-स्वाद
उसी स्वाद सा मिष्ट है, होली का आस्वाद
होली का आस्वाद, प्रेम, सौहार्द, मिलन का
जोड़े प्रेमिल तार, मनुज के मन से मन का
बुद्धि, हृदय, मन, प्राण, सभी की शुद्धि-क्रिया का
होली है त्यौहार, मधुर रस की गुझिया का।।

तन के भीतर ही बसे, रसमय कोमल सत्व।
ज्यों गुझिया के पेट में, रहता मीठा तत्व
रहता मीठा तत्व, बदन है मात्र आवरण
ज्ञानयोग से आत्म मिले, यदि शुद्ध आचरण
आत्मा निर्मल शुद्ध, ईश का जीव अंशधर
निर्विकल्प, अभिराम, बसे जो तन के भीतर

गुझिया खाकर भंग की, रामभरोसे मस्त
नशा चढ़ा तो हो गयी, हालत उनकी पस्त
हालत उनकी पस्त, बाँसुरी पड़ी सुनाई
रंग -रंग के दृश्य, आँख को पड़े दिखाई
पत्नी सम्मुख देख, छू लिए पग, झुक जाकर
कहा 'बहिनजी नमन' भंग की गुझिया खाकर

- रामसनेहीलाल शर्मा यायावर
१ मार्च २०२१

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter